हमारी संस्कृति हमारा गाँव

 

हमारी संस्कृति हमारा गाँव

 

"पहाडी़ " यह सिर्फ एक शब्द नहीं है अपने आप में पूरे देवभूमि को पहाड़ीयों से जाना जाता है | चहा {चाय} तो हमारी जान है इसी से  हमारी जिंदगी शुरू होती है और खत्म भी इस पर ही होती है | पहाडों की सुबह  चिड़ियों की चहचहाट, हाथ में गरम चाय, ओंस की बूंद गिरना घास पर, और बस सन्नाटा हुआ बस ताजी हवा की लुफ्त उठाते हुए एक पहाडी की पहाड़ो में सुबह होती है| छोटी छोटी आंखों वाले, गालों में सुर्ख लाली लिए बोलीं में मिसरी सी मिठास लिए और पहाड़ो को देखकर र्गव से कहना  में पहाड़ी हूँ यह है हमारे पहाड़ उत्तराखण्ड के लोगो की पहचान !!

 

है हमारा आशियाना इन पहाड़ो में और अगर मीठी बोली बात करते हैं तो  ठैरा,बल से शुरू होकर ठैरा,बल पर खत्म होती है यह है पहचान हमारी , अब आइए हम आपको यहाँ की संस्कृति के बारे में बतातें हैं| यू हमारी संस्कृति हैं सादी सी पर काई अनेक रंग लिए है , हमारे घर हमारे पशु हमारे गधेरे हमारे पहाड़ो की हरियाली का जवाब नहीं !! शब्दों मैं पिरोहे पल की व्याख्या भी कम हैं हमारी संस्कृति हमारे गाँव के लिए | इसलिए कहते है की पहाडी़ पहाड़ से तो निकल सकता है पर अपने अंदर बसा हुआ पहाड़ नहीं निकल सकता |

 



 

यहाँ देवी देवताओं की बहुत मान्यता हैं आज भी उत्तराखंड को देवभूमि ऐसे ही नहीं कहा जाता यहाँ हमारे देवी देवताओं का बसेरा है | उत्तराखंड सिर्फ केदारनाथ और बद्रीनाथ से खत्म नहीं होता | यह पंच बद्री, पंच केदार, तथा पंच प्रयाग के लिए भी जाना जाता है| हमारी संस्कृति है ऐसी की होली, दिवाली में हर कोई अपने पाहाड़ को लौट कर आए.|आज भी कई छोटे छोटे गाँव में हमारी संस्कृति को हमारी धरोहर को संजो के रखें हुए हैं और यहाँ की औरतें हर ब्योहली में नाक की नथ, पौंची, रंगयाली पिछौडा  हमारी शान है और लडकों, बजुर्गों के लिए पहाडी टोपी और वास्कट खूब जचता  है| सबसे खास बात यह है कि यहाँ ब्याह बारातों में नाग, निसाड़ की धुन पर ,बेडू पाको, मेरा फ्वां बागा रे में ठूमक लगाना तो जरूरी है हमारे लिए नहीं तो कहाँ हमारे यहाँ  ब्याह खत्म होती है| वहीं हम हमारे मजेदार,स्वादिष्ट, पोष्टिक खाने के बारे में बताते हैं| भात,भट्ट के डुबके, झोली भात, मडुए की रोटी, घी से लतपत , उसपर मखन  माँ के हाथ की जो दिलासा देती है मानो भूखे पेट को भोजन मिल गया हो | 

 


तो अब आतें है मेरा पहाड़, मेराे गाँव, मेरो जन्म भूमि, तीनों शब्द हमारे लिए किसी अपनेपन से कम नहीं है चाहे हम कहीं भी रहें पर कहते तो हम खुद को पहाड़ी ही | हमारे यहाँ हरी भरी हरयाली प्यार भरा मौसम, वो कोहरे से हुई ढकी वादियाँ, वो ऊँचे ऊँचे पहाड़ो में बसेरा हुआ हमारा और एक शांत सा वातावरण छिपा है| जहाँ सिर्फ आपको सुकून और शांति मिलेगी, वहीं शहर के शोर शराबे, धूल प्रदुषण से काफ़ी मिलों दूर है मेरा घर उन पहाड़ो में जहाँ दो वक़्त की रोटी बहुत कष्ट से मिलती है| पर है सुकून की हमारा बसेरा उन पहाड़ो की देवभूमि में है| जैसे माँ की गेद में सारे गम ,तकलीफ भुलाकर सो जाते हैं वैसे ही पहाड़ हमें अपने पास बुला ही लेता है |

 

कहते हैं ना एक पहाड़ी अपने पहाड़ से तो निकल सकता है पर अपने अंदर बसा हुआ पहाड़ को और यहाँ के संस्कृति को कभी भूले भूलाये नहीं जा सकता है |

                                                                                                         लेखकहिमानी अधिकारी



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10 टिप्पणियाँ

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  1. Bhot achaa... ise padh k laga ki pahado pe hi jindagi basti hai.... dil chu liya

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